हीरो, हिरोइन और विलेन के बगैर हिंदी फिल्म की कल्पना नहीं की जा सकती, मगर जिस तरह से आलू हर सब्जी में खप जाता है, उसी तरह से हिंदी सिनेमा के सह-चरित्र अदाकार वह प्रजाति होते हैं, जिनके बगैर हिंदी फिल्म की कहानी आगे नहीं बढ़ सकती, मगर सैकड़ों फिल्में करने बावजूद वे अपनी जमीन नहीं तलाश पाते। फिल्म का मुख्य किरदार सुधीर खुद को उसी आलू की तरह समझता है, जो सब्जी के लिए जरूरी तो होता है, मगर उसकी औकात कभी ऊंची नहीं उठ पाती। असल में निर्देशक हार्दिक मेहता की इस फिल्म में ऐसे कलाकार की कहानी और त्रासदी को पेश करते हैं, जो कभी हीरो के दोस्त का दोस्त हो या विलेन का चमचा, डॉक्टर, पुलिस इंस्पेक्टर, मां के बेटे को प्रताड़ित करने वाला या फिर किसी भुतहा हवेली में लालटेन लेकर रामू काका बना हुआ, उसके द्वारा निभाए हुए किरदार लोगों को याद तो रह जाते हैं, मगर उनको पहचान नहीं मिलती। कहानी: सुधीर () उन सह-चरित्र अदाकारों में से है, जिसका अपना एक दौर था। उस दौर में सुधीर तकरीबन हर दूसरी फिल्म में होता था, मगर आज वह फिल्मों की चमक-दमक, अपनी बेटी, दामाद और नाती से दूर अपने दोस्त और दो पेग के साथ अकेला रहता है। अपने जमाने में सुधीर की एक फिल्म का डायलॉग 'बस इंजॉइंग लाइफ, और कोई ऑप्शन थोड़ी है?' इतना फेमस हुआ था कि अब उस पर सोशल मीडिया पर मेसेजेस और फॉरवर्ड बन गए। सुधीर को लोगों ने बिसराया नहीं है, मगर उसका नाम कोई जानता नहीं है। एक अरसे बाद एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट उसका टीवी इंटरव्यू करने आती है और तब सुधीर को पता चलता है कि वह अब तक 499 फिल्में कर चुका है। उसके बाद सुधीर को धुन चढ़ जाती है कि अगर एक फिल्म में और काम कर कर ले तो 500 का आंकड़ा पार कर रेकॉर्ड बना सकता है। इसके बाद सुधीर मिलता है अपने पुराने शागिर्द गुलाटी (दीपक डोबरियाल) से जो अब बहुत बड़ा कास्टिंग डायरेक्टर बन चुका है। वह सुधीर को एक रोल में कास्ट भी करता है, मगर उसके बाद सुधीर को रुपहले परदे की उन कड़वी सचाइयों से भी वाकिफ होना पड़ता है, जिसकी गहराई में वह कभी उतरा ही नहीं था। रिव्यू: निर्देशक हार्दिक मेहता की ये फिल्म इंडस्ट्री में साइडकिक्स कहलाने वाले उन कलाकारों के अस्तित्व के दर्द को बयान करती है, जिन्हें हम उनके नाम से नहीं बल्कि साइड ऐक्टर्स के रूप में जानते हैं। इस दर्द को बयान करते हुए उन्होंने मेलोड्रामा का सहारा लिए बगैर फिल्म को जज्बाती, रियलिस्टिक और फनी तरीके से ट्रीट किया है। फिल्म साइड ऐक्टर्स के दृष्टिकोण से दर्शाई गई है और उसमें इंडस्ट्री की बहुत ही बारीक चीजों को भी अंडरलाइन किया गया है। कैसे कलाकार अपने अभिनय के नशे में परिवार को उपेक्षित कर देते हैं और फिर कैसे उसे तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। ये सारे ट्रैक्स फिल्म को मजबूती प्रदान करते हैं। फिल्म को रियलिस्टिक रखने के लिए निर्देशक ने पुराने दौर के विजू खोटे, बीरबल, अवतार गिल, लिलिपुट जैसे कलाकारों को इस्तेमाल किया है। हालांकि सक्रीनप्ले थोड़ा कसा हुआ होना चाहिए था। सेकंड हाफ स्लो है। इसके बावजूद क्लाइमैक्स रंग जमा जाता है। पियूष पुटी की सिनेमटॉग्रफी सधी हुई है। संगीत पक्ष कमजोर है। अभिनय के मामले में संजय मिश्रा लाजवाब रहे हैं। उन्होंने न केवल विभिन्न किरदारों के गेटअप को न्याय दिया है मगर उन चरित्रों के बॉडी लेंग्वेज पर भी कड़ी मेहनत की है। वे इस दौर के समर्थ अदाकार हैं और हर भाव को जीने में अव्वल। कास्टिंग डायरेक्टर बने गुलाटी के रूप में दीपक डोबरियाल याद रह जाते हैं। सुधीर की बेटी के रूप में सारिका सिंह और स्ट्रगलिंग ऐक्ट्रेस के रूप में ईशा तलवार ने सहज अभिनय किया है। अवतार गिल का चरित्र भी मजेदार है। क्यों देखें: रियलिस्टिक फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।
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